पहचानें अपनी सीमा
मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार ऐसा अवसर आया है कि मनुष्य अपनी वास्तविकता को समझ सके। धर्म दर्शन के लिए यह कोई नई बात नहीं है। धर्म जगत में सदा से ही मनुष्य को माटी का पुतला माना जाता रहा है। उसका स्वयं का कुछ नहीं है। जिन पांच तत्वों से मिल कर वह बना है वह भी प्रकृति से उधार लिए गए हैं जो अंतत: लौटाए जाने हैं। वह जन्म के समय कुछ भी लेकर नहीं आया था। वह जीवन समाप्त होने के बाद साथ लेकर भी कुछ नहीं जाएगा। इसके बाद भी मनुष्य जीवन भर अर्जित कर लेने और संग्रह करने में व्यस्त रहता है। वह स्वयं को भाग्यविधाता मानने लगा था, किंतु आज एक छोटे से वायरस ने उसका सारा अभिमान ध्वस्त कर दिया है। आज से पहले मनुष्य को सर्वाधिक भय परमाणु अस्त्रों के कारण तीसरे विश्वयुद्ध से लगता था। उसे लगता था कि यदि युद्ध हुआ तो संसार नहीं बचेगा। आज का भय ऐसे वायरस से है जो स्वत: सृजित हुआ है और जिससे निपटने की कोई ठोस योजना मनुष्य के पास नहीं है।
प्रकृति का रोष
यह समय है हर तरह के अभिमान से मुक्ति पाने का और जीवन का सच देखने का। आज घर की सीमाओं में बंदी मनुष्य के लिए वह सब कुछ व्यर्थ हो गया है जिसे पाने के लिए वह दिन रात एक करता रहा है। उसके पास कितना भी धन हो, धन का उपयोग सीमित हो गया है। आज जीवन अधिक महत्वपूर्ण लगने लगा है। पहले छोटे-मोटे रोगों में भी मनुष्य की दिनचर्या बाधित नहीं होती थी। आज साधारण जुकाम भी आत्मविश्वास को हिला रहा है। भय का बड़ा वातावरण बना हुआ है। निर्भय मात्र वह है जो परमात्मा से जुड़ा हुआ है। संसार में जो भी घट रहा है उसमें परमात्मा की इच्छा निहित है। परमात्मा की इच्छा और आज्ञा में रहकर उससे दया और कृपा की प्रार्थना करना ही मनुष्य के वश में है। दीन-हीन ही मनुष्य की वास्तविकता है जिसे सदा के लिए स्वीकार कर लेना चाहिए।
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